मध्यप्रदेश की सरकार ने नवम्बर 2021 में फैसला लिया है कि इन्दौर स्थित खण्डवा रेल्वे रास्ते पर पातालपानी रेल्वे स्टेशन का नाम टांट्या भील के नाम पर रखा जाएगा एवं वहीं पर स्थित टंट्या मामा के मंदिर का जीर्णोद्धार किया जाएगा और इंदौर ही स्थित भंवर कुआं चौराहे का नाम और एमआर-10 बस स्टैण्ड का नाम टांट्या भील के नाम पर रखा जाएगा। अब लोगों के बीच टांट्या भील के बारे में चर्चाएं होने लगी हैं। इस लेख में हम टांट्या भील के संक्षिप्त जीवनी के बारे में बात करेंगे।
टांट्या भील: एक योद्धा |
टांट्या भील का बलिदान दिवस 4 दिसम्बर को मानाया जाता है। जबलपुर सेशन कोर्ट के द्वारा 19 अक्टूबर 1889 को टांट्या भील को फांसी की सज़ा सुनाई गई थी और यह भी बोला जाता है कि टांट्या के शरीर को इंदौर के समीप पातालपानी रेल्वे स्टेशन के पास फेंक दिया जाता है।
टांट्या को टंट्या भी उच्चारित किया जाता है। मैंने इस लेख में टांट्या उच्चारित किया है तो और इसे अपने मुताबिक़ इंटरप्रेट कर सकते हैं।
टांट्या भील का जन्म 1840 या 1842 (अलग-अलग स्त्रोतों में अलग-अलग जानकारी मिलती है) में खण्डवा, मध्यप्रदेश में हुआ। भील भारत का प्रमुख आदिवासी समुदाय है जिनकी आबादी मध्यप्रदेश में पश्चिमी क्षेत्र में सर्वाधिक है। मध्यप्रदेश के भील समुदाय ने अपनी मातृभूमि एवं प्रकृति की रक्षा के लिए सदैव बलिदान दिया है। जब टांट्या सिर्फ 15-17 साल के थे तब 1857 का सैनिक विद्रोह/ प्रथम स्वतंत्रता संग्राम लड़ा गया। टांट्या इससे बहुत प्रभावी थे और उन्होंने अंग्रेजों के अत्याचार के खिलाफ़ गुरिल्ला लड़ाई का सहारा लिया। टांट्या को 1874 में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया है, क्योंकि टांट्या अंग्रेजों के अनुसार गलत काम में लिप्त थे। अंग्रेजी लेख/पत्रिकाओं में टांट्या को एक अपराधी की तरह पेश किया गया है। जब 1874 में टांट्या भील जेल से वापस आए तो वह और खतरनाक हो गये और बड़ी चोरी और अपहरण जैसी वारदातों को अन्जाम देना शुुरू कर दिया।
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टांट्या भील को आमजन टांट्या मामा भी बुलाया करते थे और उनके समर्थकों की संख्या बहुत अधिक थी। टांट्या चोरी, लूट आदि का माल गरीबों में बांट दिया करते थे, क्योंकि उनको पता था कि इन्हींं गरीबों की खून-पसीने की कमाई को अंग्रेजोें ने हड़प लिया था। टांट्या को न सिर्फ अंग्रेजों बल्कि इन्दौर के होल्कर के साथ भी लोहा लेना पड़ा था, क्योंकि इन्दौर के होल्कर अंग्रेजी हुकूमत के वफ़ादार थे। टांट्या के पास अद्भुत ताकत थी, जिसका इस दुनिया में कोई नहीं था उसे टांट्या मामा ने अपना लिया था।
टांट्या के खौफ ने अंग्रेजों का जीना मुश्किल कर दिया था। सन् 1878 में दोबारा टांट्या भील (Tantya Bhil) को हाजी नसरूल्लाह ने कैद कर खण्डवा जेल भिजवा दिया। सिर्फ 3 दिन के ही भीतर टांटृया उस कड़े जेल गिरफ्त से बाहर आने में कामयाब हुए। इसके बाद टांट्या एक डकैत की तरह बन गये और अंग्रेजों की कितनी भी बड़ी सेना क्यों न हो, टांट्या उसे धूल चटा दिया करते थे।
यहीं से शुरू होता है टांट्या भील को रॉबिनहूड नाम दिये जाने का। टांट्या मामा ने कभी भी गरीबों को नहीं सताया और अंग्रेजी ख़जाने को कभी भी नहीं बख्शा। टांट्या भील भीली औज़ारों के इस्तेमाल में पारंगत थे। आज भी भीली औज़ारों को झबुआ, अलीराजपुर जैसे पश्चिमी मध्यप्रदेश के जिलों में देखा जा सकता है। अंतत: टांट्या भील की मुंह बोली बहन के पति गणपत ने अंग्रेजों के साथ मिलकर टांट्या को अंग्रेजों के हवाले करवा दिया जहां से जबलपुर में सत्र न्यायालय ने टांट्या भील को 19 अक्टूबर 1889 को फांसी की सज़ा सुना दिया।
देश में बहुत से क्रांतिकारी हुए हैं परन्तु कुछ क्रांतिकारियों को उनका सम्मान नहीं दिलाया गया। टांट्या मामा भी एक ऐसे ही क्रांतिकारी थे जिन्होंने अपना सब कुछ इस देश की मिट्टी के लिए कुर्बान कर दिया। ज़रूरत आज इस बात की है कि हम टांट्या मामा की गाथा को जन-जन तक पहुंचाएं ताकि उनके बलिदान एवं देश की स्वतंत्रता में योगदान को युगों-युगों तक याद रखा जा सके।
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