आपने कई बार सुना होगा कि किसी नेक काम के लिए कोई नेतृत्व अपने अनुयायियों का आवाहन करते हैं और आवाहन परिणामस्वरूप अनुगामी (followers) अपने नेतृत्वकर्ता की बात मानकर कोई कार्य को अंजाम देते हैं। असल में हिन्दू विधि - विधानों में हिन्दू देवी-देवताओं को भी बुलाने के लिए आवाहन किया जाता है। तो दोस्तों कहीं-कहीं आप आह्वान भी पढ़ते होंगे, तो आज इस लेख में हम जानने वाले हैं आखिर क्या अन्तर है आह्वान और आवाहन में।
आह्वान और आवाहन में अंतर
एक बात बताऊँ, ऊपर किया गया मेरा आवाहन का प्रयोग गलत है। अक्सर शासकीय पत्राचारों के साथ-साथ बड़े-बड़े मंच के विद्वान लोग भी अक्सर ऐसी सामान्य सी गलती कर बैठते हैं जिससे की वाक्य का सारा अर्थ ही बदल जाता है। क्या आप भी आह्वान और आवाहन का सही प्रयोग नहीं जानते हैं? तो चलिए आज सीख लेते हैं -
आह्वान - जब हम किसी को पुकारते हैं, किसी को याद करते हैं, किसी को कुछ कहने के लिए अनुरोध करते हैं, उसे आह्वान कहते हैं। जैसे पुजारी-पण्डित और भक्तजन भक्ति-यज्ञ आदि के माध्यम से भगवान का आह्वान करते हैं, उन्हें याद करते हैं। जैसे मान लीजिए हमारे नेता जी हमें किसी काम के लिए अनुरोध करते हैं अथवा कहते हैं तो वह हम जनता का आह्वान कर रहे होते हैं।
आवाहन - वाहन का मतलब तो आपको पता ही होगा कोई गाड़ी, घोड़ा या सवारी आदि जिसका प्रयोग एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए किया जाता है। आवाहन का अर्थ है जब हम वाहन पर सवार हो जाते हैं। तो जब हमारी विनती के बाद भगवान/देवी-देवता हमारे सामने प्रकट होते हैं तो वे हमारी आह्वान पर आवाहन करते हैं। अर्थात् देवी-देवता आवाहन कर रहे हैं। जब आपके बुलाने पर कोई आपके बीच कसी साधन के माध्यम से आते हैं तो वह आवाहन करके आते हैं, वह आवाहन किसी कार, ट्रेन, बाईक, घोड़ा या पौराणिक किसी भी माध्यम से हो सकते हैं।
उदाहरण के तौर पर यदि भगवान श्रीराम लंका पर चढ़ाई से पहले रामेश्वरम में भगवान शिव का आह्वान करके यज्ञ किया तो भगवान शिव ने बैल पर आवाहित होकर श्रीराम को दर्शन दिया।
अंग्रेजी में आह्वान को Invocation, Call कह सकते हैं, जबकि आवाहन का मतलब riding on vehicle कहा जा सकता है।
हिन्दी की लोकप्रियता आए दिन बढ़ती ही जा रही है। भारत में हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा बनाने की लड़ाई बहुत पुरानी है परन्तु अब यह प्रयास सार्थक साबित हो रहा है। वर्तमान भारत देश का नक्शा यदि देखा जाए तो स्पष्ट है कि इन राज्यों का बँटवारा मुख्यतया भाषायी संस्कृति के आधार पर हुआ है। भारत के वर्तमान प्रान्त इतिहास में गुलामी एवं दासता से होकर गुजरे हैं, चाहे वह मुगल काल रहा हो अथवा ब्रिटिश काल। मुख्यतया उत्तर भारत में मुगल शासन अधिक रहा और हिन्दी जो असल में उर्दू की बहन भाषा है, बहुत तेजी से फूली-फली।
उत्तर भारत के लगभग सभी प्रांत के लोगों के द्वारा अब हिन्दी समझी जाने लगी है। दक्षिण भारत के भी उन इलाकों में हिन्दी अच्छी खासी समझी जा रही है जहॉं पर मुस्लिम जनजंख्या है। दक्षिण भारत में उर्दू का प्रचार-प्रसार मुख्यतया मुस्लिम समुदाय के लोगों द्वारा हुआ, दूसरी तरफ हिन्दी लगभग उर्दू जैसी ही बोली जाती है इसलिए हिन्दी एवं उर्दू का विकास साथ-साथ हुआ। वहीं पर पूर्वोत्तर भारत के राज्यों को देखा जाए तो हिन्दी अब आम बोलचाल की भाषा बनती जा रही है। असम, मेघालय, अरूणांचल, त्रिपुरा आदि राज्यों में भी हिन्दी आम बोलचाल में प्रयोग की जाने लगी है। यहॉं तक कि बंगाल एवं उड़ीसा में भी हिन्दी का प्रचार-प्रसार तेजी से हुआ है।
उत्तर भारत के अधिकांश राज्यों की आधिकारिक भाषा हिन्दी ही है। हरियाणा, हिमाचल, उत्तराखण्ड, दिल्ली, चण्डीगढ़, उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखण्ड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं राजस्थान की राजभाषा हिन्दी है। अर्थात् इन राज्यों के लगभग शतप्रतिशत लोगों द्वारा हिन्दी समझी जाती है। दूसरी तरफ ऐसे भी राज्य हैं जहॉं हिन्दी का प्रमुखतया से प्रयोग हो रहा है भले ही हिन्दी वहॉं की मुख्य राजभाषा न हो, जैसे गुजरात, पंजाब, जम्मू कश्मीर, लद्दाख, पश्चिम बंगाल एवं पूर्वोत्तर के राज्य, साथ-ही-साथ दक्षिण भारत में भी महाराष्ट्र, तेलंगाना, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, गोवा, केरल व तमिलनाडु में भी हिन्दी अच्छी - खासी समझी जाती है। जैसा पूर्व में ही मैंने कहा कि जिन क्षेत्रों में उर्दू का दबदबा मुस्लिम समुदाय की वजह से है वहॉं हिन्दी का प्रचार-प्रसार स्वयं से हो रहा है, क्योंकि उर्दू एवं हिन्दी एक दूसरे के पर्याय जैसे हैं।
हिन्दी के प्रचार-प्रसार में बॉलीवुड एवं हिन्दी सिनेमा का बहुत बड़ा योगदान रहा है। ऐतिहासिक रूप में देखा जाए तो हिन्दी ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की लिंक भाषा बनी थी, क्योंकि अधिकांशत: लड़ाइयॉं अथवा विदेशी ताक़तों का विरोध उत्तर भारत में ही हुआ। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की बात हो अथवा कोई भी आन्दोलन, उसका मुख्य केन्द्र उत्तर भारत ही रहा है। महात्मा गॉंधी से लेकर बड़े-बड़े क्रांतिकारियों ने भी हिन्दी को ही क्रांति की भाषा माना था। स्वतंत्रता के बाद भारत के संविधान सभा द्वारा हिन्दी को राजभाषा (साथ ही अंग्रेजी) के रूप में अपनाया गया। बात तो चली थी कि हिन्दी को राष्ट्र भाषा का दर्जा दे दिया जाए, परन्तु सम्पूर्ण राष्ट्र में हिन्दी के प्रति उतनी समझ नहीं थी और यह हिन्दी थोपने जैसा था जिसका विरोध मुख्यतया दक्षिण भारत (तमिलनाडु खासकर) में हुआ। स्वतंत्रता बाद भारतीय संविधान में भी हिन्दी को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया तथा हिन्दी के प्रचार-प्रसार की बात भी की गई। इसका ध्यान लगभग सभी बार की सरकारों ने रखा, भारत सरकार ने हिन्दी प्रचार-प्रसार को ध्यान में रखते हुए कई सारे सार्थक प्रयास किये। हिन्दी को बढ़ावा देने एवं प्रोत्साहित करने हिन्दी अकादमी ने भी अच्छा खासा योगदान दिया।
अब समय ऐसा आ चुका है कि उत्तर भारत से लेकर दक्षिण के कुछ राज्यों में हिन्दी को लगभग प्रत्येक इंसान समझ रहा है। कुछ समय पूर्व जो लिंक भाषा को लेकर विवाद चल रहा था कि हिन्दी लिंक भाषा के रूप में हो अथवा अंग्रेजी अथवा कोई अन्य भारतीय भाषा, तो वृहद क्षेत्र को देखते हुए हिन्दी अथवा अंग्रेजी को ही लिंक भाषा के रूप में स्वीकार करने की बात आई। व्यवहारिता देखा जाए तो आजकल अंग्रेजी ही लिंक भाषा का स्थान ली है, परन्तु उत्तर भारत में हिन्दी को लिंक भाषा के रूप में दर्जा प्राप्त हो चुका है। यदि हिन्दी का उन्नयन इसी प्रकार चलता रहे तो बहुत जल्द हिन्दी को सम्पर्ण भारत की लिंक भाषा के रूप में देखा जा सकेगा। सम्पूर्ण भारत की हिन्दी के प्रति झुकाव को देखते हुए यह भी कहा जा सकता है कि बहुत जल्द हिन्दी भारत की राष्ट्र भाषा होगी।
हिन्दी की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि अंतराष्ट्रीय कम्पनियॉं एवं बड़े-बड़े भी आज कल विज्ञापन के लिए हिन्दी भाषा का प्रयोग कर रहे हैं। हिन्दी की लोकप्रियता न सिर्फ भारत में बल्कि पूरी दुनिया में भी बढ़ रही है। यह सफलता विदेशों में रह रहे हिन्दी भाषी लोगों की वजह से ही सम्भव हो पाया है। हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनने का अधिकार इसलिए भी है क्योंकि हिन्दी सचमुच एक मातृरूपी भाषा है तो अन्य भाषाओं के शब्दों को भी आधिकारिक तौर पर ग्रहण कर लेती है। राजभाषा अधिनियम के तहत आधिकारिक तौर पर भी कहा गया है कि सरकारी कामकाजों में भी हिन्दी के इतर अन्य भाषाओं जैसे अंग्रेजी, संस्कृत आदि के शब्दों का प्रयोग करना भी उचित है।
इसीलिए तो हिन्दी प्यारी हिन्दी है। यह आमजन के दिल की भाषा है जिसका दिल बड़ा है।
हिन्दी एक भाषा है। भाषा सिर्फ एक माध्यम होती है अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का। दुनिया के सभ्य समाज में भाषा के मुख्यतया दो रूप होते हैं। प्रथम है मौखिक एवं द्वितीय है लिखित। भाषा को सुसंगत रूप में व्यक्त करने के लिए हमें व्याकरण का ज्ञान होना अति आवश्यक है, परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भाषायी त्रुटि किसी के आत्मसम्मान से बढ़कर नहीं है।
इस लेख में हम कुछ भाषायी और वर्ण त्रुटि के बारे में बात करेंगे और आपका ध्यान इस ओर आकृष्ट कराना चाहेंगे कि किस प्रकार आज हम भाषायी त्रुटि को आम समझने लगे हैं एवं कई बार लिखा हुआ वाक्य कुछ और ही बखान कर दिया करता है, जो हम कहना चाहते हैं। हम आपको कुछ एडवाईस भी देना चाहेंगे ताकि आप भाषायी कमज़ोरी को अपनी कमज़ोरी न समझ लें।
लेख प्रारम्भ करने से पहले मेरा सभी कार्यालय प्रमुख से निवेदन है कि आप अपने कार्यालय में किसी भी कर्मी को डांटिए मत और न ही उसे नीचा दिखाने का प्रयत्न करिये कि वह कितना कमज़ोर है अपने कार्यक्षेेत्र में या उसके ज्ञान के स्तर को गुस्से के पैमाने पर आंकने से बचिएगा। यकीनन कई बार टंकण/टायपिंग की वजह से और कई बार लेखक/टायपिस्ट/अधिकारी/कर्मचारी के सही ज्ञान न होने की वजह से हिन्दी लेखन में अशुद्धियां आ जाती हैं। कार्यालय प्रमुख को यह समझ लेना चाहिए कि भारत का संविधान स्वयं हिन्दी को बढ़ावा देना चाहता है, जबकि राजभाषा के नियमों में संविधान ने यह भी साफ कर दिया है कि हिन्दी का साहित्यिक रूप ही सर्वोपरि नहीं है, अपितु हिन्दी के साथ अन्य भारतीय भाषाओं के अल्फाज़ भी मिलाकर हिन्दी को व्यक्त करना उचित है। इसमें आप मिली-जुली अंग्रेजी का भी प्रयोग कर सकते हैं।
मैं मध्यप्रदेश अभियोजन विभाग में काम करता हूँ। यह एक मध्यप्रदेश सरकार के अन्तर्गत विभाग है जोकि पुलिस विभाग का आधिकारिक सलाहकार है। मैं सहायक ग्रेड-3 के पद पर पदस्थ हूँ और टायपिंग आदि कार्य भी मेरे ही कार्यक्षेत्र के अन्तर्गत आता है। हमारा विभाग न्यायालय में कार्य करता है जोकि सरकार की तरफ से पुलिस कार्यवाही को उचित ठहराता है, अर्थात शासकीय वकालक का कार्य करता है। असल में मैं हिन्दी एवं अंग्रेजी भाषा में अच्छी पकड़ बनाए हूँ एवं इस बात को मैं स्वयं समझता हूँ कि मेरी हिन्दी लेखन और व्याकरण पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है। परन्तु मैं स्वयं कई बार छोटी-छोटी गलतियां कर बैठता हूँ। एक बार मेरे कार्यालय प्रमुख कोर्ट साहब/अपर जिला लोक अभियोजन अधिकारी श्री सूर्य प्रसाद पाण्डेय सर (अभियोजन, देवसर न्यायालय, जिला- सिंगरौली, मध्यप्रदेश) पत्र लिखवा रहे थे और मैं मर गयी औरत को मृतिका लिख रहा था। असल में मैंने न्यायालय के कई आदेश/निर्णय को पढ़ा है जहां मरी हुई औरत को मृतिका लिखा गया। श्री सूर्य प्रसाद पाण्डेय सर ने मुझे समझाया कि मृतक का अर्थ होता है, मरा हुआ आदमी, जबकि मरी हुई औरत के लिए मृतका का प्रयोग होना चाहिए। उन्होंने यह भी बताया कि जली हुई मिट्टी का अर्थ होता है मृतिका । अब आप ही बताइए कि न्यायालय के निर्णय में किसी मृत औरत को मृतिका (अर्थात जली हुई मिट्टी) लिखा जाता है, और भी कई तरह की सामान्य त्रुटियां होती हैं। आप किसी न्यायालय के निर्णय या जहां मृत औरत के संबंध में, को देख लीजिए, जहां तक मेरा अनुभव है अधिकतर प्रायिकता है कि उसे मतिका लिखा जाता है। आप देख सकते हैं कि किस प्रकार वाक्य का पूरा अर्थ ही बदल जाता है ऐसी अशुद्धियों की वजह से।
यह एक सामान्य त्रुटि है, परन्तु मैं इस बात को भी बताना चाहता हूँ कि मेरे कार्यालय प्रमुख कितने अच्छे व्यक्तित्व के मालिक रहे हैं, उन्होंने बहुत आसानी से मेरी गलतियों को पकड़ा और उसका अर्थ बताया। असल में मैंने कुछ कार्यालयों में देखा है कि किस प्रकार सामान्य त्रुटि के फलस्वरूप उन कर्मचारियों को कार्यालय प्रमुख से कितने ताने सुनने पड़ते हैं। अप्रत्यक्ष रूप से ऐसे ही सहज स्वभाव हिन्दी के प्रति प्रेम व रूचि को जागृत करता है।
पढ़ने व लिखने के अन्तर को समझें- मैंने देखा है कि कई सारे आधिकारिक पत्रों में भी कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग कर दिया जाता है जो बोलने में तो सही लगते हैं, परन्तु लिखने में अनर्थ कर दिया करते हैं। मैं बघेलखण्ड क्षेत्र का रहने वाला हूँ और यहां जो हम हिन्दी बोलते हैं वह मध्य-मध्यप्रदेश से बेहतर एवं अधिक साहित्यिक होती है। दूसरे शब्दों में, स्थान विशेष से परे, ज्यादा सभ्य एवं पढ़े-लिखे लोग शुद्ध हिन्दी का प्रयोग बोलने एवं लिखने में करते हैं। मुझे याद है भोपाल के आस-पास के कुछ लोग कुछ इस प्रकार शब्दों का प्रयोग करते हैं- उदाहरण के तौर पर, मैं आपसे यह कहना चाहता हूँ कि मैं आपसे पहले यहां आया। इस हाईलाईटेड वाक्य को कुछ लोग इस प्रकार बोलेंगे - मैं आपसे यह केना चाहता हूँ कि मैं आपसे पेले यहां आया। अब यदि वही लोग आधिकारिक पत्रादि लिखने बैठ जाएंगे तो अर्थ का अनर्थ होना तय ही है। मेरा मतलब यहां किसी को कमतर आंकना नहीं है, अपितु इस बात को दर्शित करना है कि कई बार हम कुछ ऐसी गलतियां भी कर बैठते हैं, जो हम अक्सर बोला करते हैं।
निर्वाचित जैसे शब्दों में कर्ब के का उच्चारण स्थान एवं प्रयोग- मेरा मतलब र का प्रयोग एवं उच्चारण जो कि किसी वर्ण के ऊपर विरीत दिशा में किया जाता है। नीचे फोटो में आप देख पाएंगे कि यह पत्र भोज महाविद्यालय भोपाल का है और इस आधिकारिक पत्र में किस तरह की त्रुटियां हुई हैं।
म.प्र. भोज की एक अधिसूचना पत्र
उपर्युक्त अधिसूचना में कुल गलतियां हैं एवं उसके पीछे के सामान्य कुछ कारणों पर मैं बात करना चाहूँगा।
1. प्रबंध बोर्ड की 88वीं बैंठक - बैंठक कोई शब्द ही नहीं होता, बैठक होता है। इसमें टायपिस्ट की टायपिंग त्रुटि या उसके शब्द अनभिज्ञता के बारे में अनुमान लगाया जा सकता है। असल में कुछ लोग कई सामान्य शब्दों के प्रयोग के दौरान भी नासिका का प्रयोग करते हैं, और ऐसे ही लोग जब कोई पत्रादि का लेखन करते हैं तो बोलने अनुसार लिखने में में ( ंं) की मात्रा का प्रयोग कर दिया करते हैं।
2. लिये गये निर्णय अनुसांर - अनुसांर जैसा कोई शब्द नहीं है। इसमें भी उपयुक्त की भाँँति त्रुटि समझ आती है।
3. सज़ा काट रहें- यहाँँ पर व्याकरणिक त्रुटि है। रहें शब्द का प्रयोग कहीं-कहीं होता है, परन्तु वाक्य की शुचिता को ध्यान में रखकर। उदाहरण- आप सभी सजग रहें।
4. कैदीयों के पूर्नवास- एकवचन में कैदी सही है, परन्तु बहुवचन में कैदियों होना चाहिए। व्याकरणिक है। पूर्नवास जैसा कोई शब्द नहीं है, यहां पर लेखक पुनरवास बोलना तो जानता है, परन्तु लिखने में व्याकरण की अनभिज्ञता प्रतीत होती है। सही लेखन है- पुनर्वास । असल में (र्) है वह शब्द जो आप व के ऊपर देख रहे हैं, एवं इसका प्रयोग जिसके ऊपर यह लगता है उससे पहले उच्चारण किया जाता है।
प्रिय दोस्तों, कहने को और लिखने को बहुत कुछ है। परन्तु सीखने को उससे भी अधिक है। इसीलिए कभी भी हिन्दी लेखन में अशुद्धियाेंं को आधार बनाकर उसके सही अर्थ से समझौता नहीं करना चाहिए। परन्तु हम सभी कोशिश करना चाहिए कि हम सही हिन्दी लिखने का प्रयत्न करें, क्योंकि सही और शुद्ध हिन्दी लिखने से आधिकारिक पत्रों की शोभा बढ़ जाती है।
हिन्दी भाषा एक ऐसा विषय है जोकि विभिन्न परीक्षाओं के लिए महत्वपूर्ण है। जब हम हिन्दी की बात करते हैं, इसका अर्थ केवल यह नहीं होता कि हम व्याकरण या पाठ्यक्रम को ध्यान में रखकर अध्ययन करें। बहुत महत्वपूर्ण होता है कि हम भाषा के क्रमबद्ध इतिहास को जानें-समझें। तो इसी कड़ी में आज हम हिन्दी के इतिहास को परीक्षा की दृष्टि से समझेंगे। आपको हमारा यह प्रयास अवश्य ही पसंद आएगा एवं आप देख पायेंगे की परीक्षा में हिन्दी भाषा के इतिहास से संबंधित समस्त प्रकार के प्रश्न आप आसानी से हल कर पा रहे हैं।
भाषा - विचार आदान-प्रदान करने का एक माध्यम जो ध्वनिक सिद्धांत पर कार्य करता हो। जैसे- अंग्रेजी
विभाषा- भाषा की एक ऐसी शाखा जिसके अन्तर्गत कई बोलियॉं आती हों। इसमें साहित्य होता है, किसी राज्य की राज्यभाषा हो सकती है जैसे मैथिली बिहार की।
उपभाषा - विभाषा के समतुल्य परन्तु उपभाषा भाषा की ऐसी शाखा है जिसके अन्तर्गत कई सारी बोलियॉं आती हों परन्तु इसमें साहित्य की कमी, कोई खुद का देश / क्षेत्र नहीं, बोलने पर प्रतिष्ठित न लगे उसे उपभाषा संज्ञा देते हैं। उदाहरण- छत्तीसगढ़ी, राजस्थानी, हरियाण्वी आदि।
बोली- किसी ग्राम, मण्डल या सीमित क्षेत्र में प्रचलित भाषा की सूक्ष्म इकाई। निर्धारित दूरी पर बोली बदल जाती है।
जब किसी बोली में साहित्य की रचना होने लगती है तो वह विभाषा का रूप ले लेती है, परन्तु मानक रूप, व्याकरण इत्यादि के फलस्वरूप ही विभाषा को भाषा के रूप में स्वीकार्य किया जाता है। किसी विभाषा को भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त होने के लिए लोगों के समर्थन की आवश्यकता होती है।
हिन्दी भाषा के इतिहास को समझने का आसान तरीका है कि यह भारोपीय भाषा में भारतीय-ईरानी के अन्तर्गत आती है। वैदिक सभ्यता आर्य लोग के आने से भारत में भारोपीय भाषा जिसका आधुनिक परिष्कृत रूप हिन्दी है, का उद्गम हुआ। आइये देखते हैं कालक्रम- वैदिक संस्कृत - १५०० ईसा पूर्व से १००० ईसा पूर्व पालि भाषा - १००० ईसा पूर्व से ५०० ईसा पूर्व प्राकृत - ५०० ईसा पूर्व से प्रथम शताब्दी अपभ्रंश - प्रथम शताब्दी के बाद से १००० ईस्वी अवहट्ट - नवीं शताब्दी से १००० ईस्वी प्राचीन हिन्दी - ११०० ईस्वी से १४०० ईस्वी मध्य हिन्दी - १४०० ईस्वी से १८५० ईस्वी आधुनिक हिन्दी - १८५० ईस्वी के बाद से अब तक महाजनपद काल में शूरसेन नामक एक महाजनपद था जो समयानुसार अपभ्रंश पश्चात् शौरसेनी का रूप लिया जो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रचलित है। शौरसेनी के उदाहरण ब्रज, बुन्देली, कन्नौजी, हरयाण्वी तथा राजस्थानी एवं गुजराती भी इसी शौरसेनी से विकसित हुई हैं। पश्चिमी हिन्दी के ही अन्तर्गत खड़ी बोली आती है जिसमें अमीर खुसरो ने बहुत सी रचनाऍं अमीर खुसरो ने की। इसी खड़ी बोली में गद्य की रचना भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने की व आगे चलकर गद्य व पद्य दोनों में महावीर प्रसाद ने रचना की। शौरसेनी ही प्रमुखया पश्चिमी हिन्दी का आधार बनी। शौरसेनी से ही प्रभावित खस नाम एक अपभ्रंश का उदय हुआ जो तद्नुसार पहाढी हिन्दी का जन्म हुआ। ब्रांचड अपभ्रंश ने सिंधी, पंजाबी को उदय किया। उपर्युक्तानुसार महाजनपद काल में उत्तर भारतीय एक मगध जनपद था जोकि बाद में मागधी अपभ्रंश को जन्म दिया। इसके अन्तर्गत बिहारी, बंगला, उडिया आदि आते हैं। कुछ अन्तर के साथ अर्द्ध-मागधी जो कि उत्तर प्रदेश में पूर्वी हिन्दी का उदाहरण है।
दोस्तों एक अत्यंत रोचक बात यह कि लगभग १८३८ ईस्वी तक मुगल प्रशासन की आधिकारिक भाषा फारसी थी। परन्तु फारसी में 'स' वर्ण का लोप होता है। यही कारण है कि जब फारसी लोग भारत आये तो वे सिंधु नदी को हिन्दु उच्चारण किये और समयानुसार यह भारतीयों की पहचान और बाद में किसी समुदाय विशेष की पहचान बन गई। और हिन्दी जोकि फारसी भाषा का शब्द है, यहॉं रहने वाले लोगों की भाषा बोल दी गई। अपभ्रंश शौरसेनी से उदृत पश्चिमी हिन्दी की सबसे ज्यादा ५ बोलियॉं हैं । ये पांच पश्चिमी हिन्दी के प्रकार है- १. खड़ी बोली / कौरवी - मेरठ क्षेत्र तरफ २. ब्रजभाषा- आगरा, अलीगढ़, मथुरा ३. कन्नौजी - कन्नौज, इटावा, उन्नाव (कन्नौजी ब्रजभाषा से विकसित है) ४. बुन्देली - महोबा, चित्रकूट , झॉंसी ५. हरियाण्वी/ बांगरू - हरियाणा क्षेत्र खड़ी बोली + हरियाण्वी = आकार बहुला ब्रजभाषा + कन्नौजी + बुन्देली = ओकार बहुला अर्द्ध-मागधी से विकसित ३ बोलियॉं हैं; १. अवधी- अवध क्षेत्र, अयोध्या, लखनऊ, प्रयागराज आदि (विनयपत्रिका तुलसीदास की ब्रज भाषा में है जबकि रामचरित मानस अवधी में लिखित है) २. बघेली - रीवा क्षेत्र व कुछ उत्तरप्रदेश क्षेत्र ३. छत्तीसगढ़ी-छत्तीसगढ़ मागधी अपभ्रंश से विकसित बिहारी हिन्दी की ३ बोलियॉं हैं - १. मगही - बिहार क्षेत्र २. मैथिली - बिहार क्षेत्र (मैथिली कोकिल - विद्यापति) ३. भोजभुरी- बलिया, बनारस, मऊ, आज़मगढ़ ब्राचंड अपभ्रंश के अंतर्गत - पंजाबी, सिंधी । खस अपभ्रंश से कुमाउनी, पहाड़ी व गढ़वाली निकली हैं।
राजस्थानी हिन्दी के भाग हैं- उत्तर राजस्थानी अर्थात मेवाती, दक्षिण राजस्थानी अर्थात मालवी, पूर्वी राजस्थानी अर्थात जयपुरी ढूढाणी, पश्चिमी राजस्थान अर्थात मारवाड़ी हिन्दी । भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची २२ भाषाओं (१७वॉं भाग) को मान्यता देती है। जब संविधान लागू हुआ उस समय १४ भाषाओं को मान्यता प्रदान किया गया था परन्तु २१वें संविधान संशोधन १९६७ में सिंधी को मान्यता दी गई है । ७१वें संविधान संशोधन १९९२ में ३ अन्य भाषाओं को मान्यता दी गई - नेपाली, मणिपुरी और कोंकणी । ९२वॉं संविधान संशोधन २००३ में नई भाषाऍं अनुसूची में जुड़ी - मैथिली, डोंगरी,बोडो और संथाली हिन्दी की ५ उपभाषाऍं जिसके अन्तर्गत १७ बोलियॉं आती हैं। उपभाषाऍं बिन्दुबार हैं - पश्चिमी हिन्दी,अर्द्ध-मागधी अर्थात् पूर्वी हिन्दी, मगधी बिहार क्षेत्र, ब्राचंड और खस । इनके अन्तर्गत आने वाली १७ बोलियों को इन उपभाषाओं के अन्तर्गत दर्शाया गया है।