eDiplomaMCU: अण्‍डरएम्‍प्‍लॉयमेंट (Underemployment) एवं अनएम्‍प्‍लॉयबिलिटी (Unemployability) सरकारी विभागों की नाकामयाबी का सबसे बड़ा कारण

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Thursday, February 10, 2022

अण्‍डरएम्‍प्‍लॉयमेंट (Underemployment) एवं अनएम्‍प्‍लॉयबिलिटी (Unemployability) सरकारी विभागों की नाकामयाबी का सबसे बड़ा कारण

भारत देश में आजकल पीपीपी मॉडल की बहुत चर्चा हो रही है। इसी मॉडल को कोई प्रायवेटायजेशन तो कोई देश बेचना कह रहा है। हमने कई भारतीय सरकारी संस्‍थाओं के साथ-साथ कई राज्‍यीय उपक्रमों की नाकामयाबी को भी देखा है। आज इस लेख में हम सरकारी संस्‍थाओं की नाकामयाबी एवं कॉर्पोरेट दुनिया की तरक्‍की का विश्‍लेषण करेंगे। आप सभी पाठकों को यह बात ध्‍यान में रखना होगा कि यह लेख एक मध्‍यम वर्गीय भारतीय द्वारा लिखा जा रहा है, जिसे भारत के भविष्‍य के साथ-साथ सामान्‍य नागरिकों की भी बहुत फिक्र है।
 
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अण्‍डरएम्‍प्‍लॉयमेंट और पीपीपी मॉडल

वर्तमान परिदृश्‍य को ध्‍यान में रखते हुए हमें कुछ महत्‍वपूर्ण परिभाषाओं के बारे में जान लेना चाहिए कि आखिर हम और हमारा देश किस ओर जा रहा है। भारतीय परिप्रेक्ष्‍य में जब संसाधनों और प्रायवेटायजेशन की बात आती है तो हम बिना कुछ सोचे-समझे किसी भी एक मत का समर्थन करने लगते हैं और वर्तमान सरकार की बुराई करना प्रारम्‍भ कर देते हैं। वर्तमान सरकार की बुराई करना या न करना, उससे प्रश्‍न करना अपनी-अपनी जगह सही और संवैधानिक हक़ भी है, परन्‍तु सरकारी मद का, जो हम आमजन के टैक्‍स का रूपया रहता है, उसका दुरूपयोग सरकारी उपक्रम को चलाने में जाये और जिसका उत्‍पाद तुच्‍छ स्‍तर का रहे, कौन नागरिक ऐसा चाहेगा? बीएसएनएल सर्विसेस का बर्बाद होना न सिर्फ सरकार की मानसिकता का नतीज़ा है, बल्कि बीएसएनएल में होते हुए भ्रष्‍टाचार एवं कामचोरी का भी नतीज़ा है। यही लागू होता है अन्‍य विभाग एवं सेवाओं में।


हम किसी निष्‍कर्ष पर पहुंचें उससे पहले हमें कुछ बिन्‍दुओं/परिभाषाओं के बारे में जानना बहुत आवश्‍यक है। तो चलिए हम कुछ परिभाषाओं के बारे में जान लें, जो पहली नज़र में तो किसी आम कर्मचारी या मज़दूर के विषयक प्रतीत होती हैं, परन्‍तु इनकी अहमियत किसी संस्‍था/उद्योग/उपक्रम के उन्‍नति या अवनति पर सीधा असर पड़ता है। 

रोजगार- यह काम करने वाले और काम करवाने वालों के बीच एक समझौता होता है। इस परिस्थिति में काम देने वाले के पास काम की उपलब्‍धता रहती है, जबकि काम करने वाले के पास समय के साथ-साथ वह काम करने की इच्‍छाशक्ति भी होती है। परन्‍तु रोजगार के कई परिभाषायें हो सकती हैं, वैसे रोजगार का सामान्‍य अर्थ ऐसे काम से है जिसके बदले नियोक्‍ता, कर्मचारी को रूपये या पारितोषित प्रदान करता है। 

बेरोजगार- यह ऐसी परिस्थिति होती है जबकि उद्योग/उपक्रम आदि में नियोक्‍ता के पास या तो कोई काम नहीं है जिससे वह और लोगों को काम पर रख सके, या किसी व्‍यक्ति के पास खुद का व्‍यवसाय या आमदनी करने का कोई रास्‍ता नहीं है। व्‍यक्ति के पास कौशल के साथ समय भी हो सकता है, परन्‍तु वह कहीं से भी काम प्राप्‍त कर पाने में असमर्थ रहता है। व्‍याकरणिक तौर पर इस परिस्थिति को बेरोजगारी का दौर कहा जाता है। ध्‍यान देने वाली बात यह है कि बेराजगारी की वजह सिर्फ सरकारी नौकरी प्राप्‍त न करने से नहीं है, बल्कि कम से कम वह काम हासिल करना जिस वजह से कोई आमदनी न कर पाये से है। 

अनएम्‍प्‍लॉयबिलिटी- आजकल के बहुत से छात्र-छात्राएं बड़ी-बड़ी डिग्रियों के साथ अकुशल होते हैं। यहां पर अकुशलता का मतलब उनको कमतर आंकना नहीं है, बल्कि जो उद्योग/उपक्रम की मांग है उसके अनुसार कौशल प्राप्‍त कर पाना नहीं है। आनन्‍द महिन्‍द्रा जी ने कहा था कि आजकल के अभियंता सिर्फ डिग्रियां लिये हैं, उनके पास कौशल नहीं है। स्‍कूल/कॉलेज में जिस प्रकार की शिक्षा प्रदान की जा रही है उसका असली औद्योगिक कामकाज से कोई लेना देना नहीं रहता है। आज काम उपलब्‍ध होने के बावजूद व्‍यक्ति काम करने के काबिल नहीं रहते क्‍योंकि उन्‍होंने कार्य करने के लिए कौशल अर्जित नहीं किया है। 

अण्‍डरएम्‍प्‍लॉयमेंट- यह एक ऐसी परिस्थिति होती है जबकि कोई कुशल व्‍यक्ति अच्‍छी योग्‍यता होने के बावजूद भी कमतर स्‍तर की नौकरी करने के लिए मज़बूर हो जाता है, इसकी कई वजह हो सकती है। बाज़ार में या उस औद्योगिक उपक्रम में उसकी योग्‍यता रखने वाले पहले से ही काम पर होते हैं जिस वजह से उसको उस पद पर नहीं रखा जा सकता। आज भारत में अण्‍डरएम्‍प्‍लॉयमेंट बहुत बड़ी समस्‍या है। सामान्‍यतया यह अण्‍डरएम्‍प्‍लॉयमेंट की समस्‍या सरकारी विभागों में अधिक है एवं यह अधिक तबाही लाने वाली है। आर्गनाईज्‍ड प्रायवेट उपक्रमों में अण्‍डएम्‍प्‍लॉयमेंट की समस्‍या नहीं है क्‍योंकि प्रायवेट उपक्रम कौशल को अहमियत देते हैं, न कि उस पद को जिस पर किसी का चयन हुआ है। अण्‍डरएम्‍प्‍लॉयमेंट में कोई भी संस्‍था अपने कर्मचारियों के पूर्ण कौशल का प्रयोग नहीं करती है एवं बदले में कम वेतन पर रखती है। 

विश्‍लेषण- भारत सरकार एवं अन्‍य सरकारी विभाग में कार्यरत कर्मचारियों के कौशल को प्राथमिकता नहीं दी जाती है। सरकारी विभागों में छोटे स्‍तर का कर्मचारी यदि अच्‍छी योग्‍यता एवं कौशल रखता भी है तो उसका कोई अर्थ नहीं होता, क्‍योंकि सरकारी विभाग में ज्ञान/कौशल की कोई अहमियत नहीं है। वह छोटे स्‍तर का कर्मचारी पदोन्‍नति भी उसी के अनुरूप पायेगा जैसा कि सरकार ने तय किया है। सरकार को कोई पदोन्‍नती या भर्ती प्रक्रिया में इस बात का भी ध्‍यान रखना आवश्‍यक होता है कि समाज के हर तबके के लोगों को उस उपक्रम में शामिल किया जा सके, और इसी मुद्दे को ध्‍यानगत रखते हुए ऐसा देखा गया है कि सरकार उचित कौशल को दरकिनार करते हुए एकेडमिक और अप्रैक्टिकल सिलेबस के आधार पर ऐसे कर्मचारियों का चयन करती है जो असल में प्रायवेट या कार्पोरेट दुनिया को टक्‍कर नहीं दे सकता है। 


भ्रष्‍टाचार एक अन्‍य वजह है, और यही वजह है कि भारतीय सरकारी सेवा में आने वाले कुछ पदों के लोग बहुत महत्‍वपूर्ण विभाग/सेवाओं को कंट्रोल करते हैं जबकि असल में ये कंट्रोलर चन्‍द किताबें पढ़कर या कुछ चयन पद्धति को ध्‍यान में रखकर आगे आ जाते हैं। ब्रिटिश भारत से उन पदों का बोलवाला इस कदर रहा है कि समाज़ में अत्‍यंत सम्‍मान के अधिकार उनको बना दिया गया है। जबकि दूसरी ओर देखा जाए तो जिन विभागों को ये कंट्रोलर कंट्रोल कर रहे होते हैं उसमें आउटसोर्स या पीपीपी मॉडल के तहत कर्मचारी नियुक्‍त किये जाते हैं जो इन कंट्रोलर से कहीं योग्‍य एवं प्रोडक्टिव होते हैं। 

झूठे दिखावे और रूढि़वादिता के चलते सरकारी विभागों में आजतक मेरिट और कौशल को जगह नहीं मिल पाई है और यही वजह सरकारी विभागों या उपक्रमों की बर्बादी का कारण बना हुआ है। बीएसएनएल जैसी सरकारी सर्विसेस को टक्‍कर देने जब प्रायवेट संस्‍थाएं आगे आईं तो सरकार को समझ आया कि उनका बहुत अधिक रूपया व्‍यर्थ में सरकारी उपक्रमों का बोझ ढोने में जा रहा है। यही वह विचार है जिसने प्रायवेट संस्‍थाओं को सरकारी संस्‍थाओं के साथ मिलकर काम करने के लिए प्रोत्‍साहित किया। पीपीपी मॉडल का पूरा नाम पब्लिक प्रायवेट पार्टनरशिप है, इस मॉडल में प्रायवेट सर्विसेस/उपक्रम सरकारी विभागों की मदद करते हैं। असलियत तो यह है कि भारत के विकास को तेजी से आगे बढ़ाने में पीपीपी मॉडल अत्‍यंत कारगर साबित हो रहा है। आज रेलवे से लेकर एयरपोर्ट, मोबाईल इंडस्‍ट्री, ऑटोमोबाईल, रक्षा क्षेत्र आदि जगह पर पीपीपी मॉडल के तरह काम किया जा रहा है। इस मॉडल में भारत सरकार कुछ वर्षों के लिए प्रायवेट संस्‍था को वह एंटिटी सौंप देती है ताक‍ि उसका विकास हो सके। 

मुझे याद है कुछ साल पहले रेलवे और ट्रेन की हालात, गन्‍दगी के साथ-साथ न कोई सुनने वाला था और न कोई इस बात का संज्ञान लेने वाला। लेकिन आज रेलवे में भी सफाई सर्विस को सरकारी देखरेख के साथ-साथ पीपीपी मॉडल के लिए प्रायवेट सर्विस प्रोवाईडर्स को भी लाया गया तो रेलगाडि़यों की वर्तमान परिस्थिति आज पहले से बेहतर है, यह स्‍पष्‍ट रूप से निर्विवाद है। 

सरकारी विभागों में कार्यरत कई कर्मचारियों को आगे बढ़ने का मौका नहीं प्रदान किया जाता जिसकी प्रमुख वजह अण्‍डरएम्‍प्‍लॉयमेंट ही है। यदि कर्मचारियों को आगे बढ़ने का और कौशल का सही तरीके से प्रयोग किया जाता तो शायद पीपीपी मॉडल की आवश्‍यकता ही न होती।  


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