मध्यप्रदेश में लिपिक अर्थात क्लर्क की वेतन विसंगति एक बड़ी समस्या है। मजेदार बात यह है कि जब भी कभी चुनाव नज़दीक आता है, लिपिक वेतन विसंगति की बात फिर उठती है, परन्तु कमेटियों और पत्राचार के तले वेतन विसंगति का मुद्दा दबा दिया जाता है। मैं कई बार असमंजस में होता हूँ कि सच कहूँ अथवा न कहूँ, क्योंकि तथ्यों को रखना भी कई बार इतना भारी पड़ता है कि स्वयं लिपिक ही इसे नकारात्मक कहते हुए डिनायल मोड पर चले जाते हैं। डिनायल मोड वह परिस्थिति होती है जबकि कोई सच्चाई को जानते हुए भी ऑंख बंद कर लेता है, कहावत जैसे कि बिल्ली को देख कबूतर ऑंख बंद कर लेता है और सोचता है कि बिल्ली तो है ही नहीं, लेकिन परिणामस्वरूप कबूतर को बिल्ली का शिकार बनना पड़ता है।
अभी हाल ही में मध्यप्रदेश के वित्त विभाग के द्वारा कर्मचारी
आयोग को पत्र लिखकर लिपिक वेतन विसंगति 2400/- ग्रेड पे और समयमान वेतनमान के मुद्दे
का परीक्षण करने का कहा गया। अब इस पत्र के बारे में यदि मैं सावधान करूँ अथवा विरोध
करूँ तो मुझ पर आरोप लग जाएगा कि एक सरकारी कर्मचारी होते हुए सरकार का विरोध कर रहा
है। डिनायल मोड पर जा चुके बहुतायत लिपिक इस बात को जानते हुए भी ऑंख बंद कर लेते
हैं। तो यदि उपरोक्त पत्र की बात करूँ तो यह भ्रामक इसलिए भी है क्योंकि 2016 में
रमेशचन्द्र शर्मा जी की कमेटी ने लिपिकों की वेतन विसंगति के बारे में आधिकारिक रिपोर्ट
सौंपी थी तो अब यह नए तरीके का परीक्षण किस लिए।
दूसरी बात, इस तरह का पत्राचार आए दिन होता आया है, यह पत्राचार विभिन्न विभागों एवं लेटर हेड पर होता आया है। वर्षों पुरानी
जायज मॉंग को हमेशा कमेटी और पत्राचार के नाम पर टाला गया है। यह सरासर लिपिकों के
साथ धोखा है। परीक्षण, अब कैसा परीक्षण.... बताइए, जो वेतन विसंगति आज से लगभग 30 साल पहले ही दूर
हो जानी चाहिए थी अब भी उसका परीक्षण किया जाएगा। उन कमेटियों का क्या जो सरकार ने
माननीय न्यायालय के लिपिकों के हक में आदेश देने के बाद बनाई गईं, और तो और उन वायदों एवं आधिकारिक कार्यवाहियों का क्या जो हर चुनाव से पहले
लिपिकों के हित में होती हैं, लेकिन अंतत: एक धोखे के साथ समाप्त
हो जाती हैं।
यह लेख किसी का विरोध नहीं है, अपितु
लिपिकों के साथ न्याय की एक गुहार है। यह एक सन्देश है उन लिपिकों को जो अपने अधिकार
की लड़ाई में डिनायल मोड पर चले जाते हैं। जो मुद्दे लिपिकों के अलावा अन्य से सम्बंधित
हैं जैसे कि पुरानी पेंशन, महंगाई भत्ता, आवास भत्ता आदि पर लिपिकों को तब तक बात नहीं करनी चाहिए जबतक कि लिपिक वेतन
विसंगति दूर न हो जाए। लिपिक नेतृत्व का लिपिकों से ही कटाव लिपिक हित को तारतार कर
रहा है। कोई भी फैसला लिपिकों को बताये बिना और मनमर्जी से ले लिया जाता है जिसका परिणाम
सिर्फ पत्राचार और कमेटियों का ईनाम होता है।
मुझे याद है 2017 का एक आधिकारिक पत्र जिसके विषय में था कि
लिपिक वेतन विसंगति दूर करने के सम्बंध में, और उस पत्र में यह बताया गया था कि लिपिक सहायक
ग्रेड-3 से सहायक ग्रेड-2 बनने के लिए 5 साल की अर्हता जरूरी है, और इसी प्रकार आगे की पदोन्नति के लिए। ज़रा सोचिए, क्या यह लिपिक वेतन विसंगति थी या लिपिकों का ग्रेड पे बढ़ाया जाना था। हमारा
लिपिक नेतृत्व इस बात की खिलाफ़त क्यों नहीं किया और मुझे हैरानी इस बात की होती
है कि ऐसे लिपिक विरोधी बातों के खिलाफ बोलने वाला कोई नहीं है। जो बोलना चाहता है
उसकी आवाज़ दबा दी जाती है अथवा लिपिक ही स्वयं लिपिकों की आवाज़ बनने के बजाए डिनायल
मोड में रहना पसंद करते हैं।
निष्कर्ष के तौर पर देखा जाए तो इन सब बातों को लेकर लिपिकों में आक्रोश है। लिपिक सम्मान से जीना चाहता है और इस सम्मान की परवाह लिपिक नेतृत्व को होनी चाहिए। लिपिकों को अब और पत्राचार और कमेटियों के मायाजाल में फँसाया नहीं जा सकेगा। दु:ख होता है कि खुलेआम पत्राचार करके लिपिकों को भ्रम में रखा जाता है और यदि विधानसभा अथवा आधिकारिक रूप से लिपिक वेतन विसंगति की बात आती है तो इसे हास्यास्पद रूप से नकार दिया जाता है। लिपिक ब्लैकमेलिंग नहीं कर रहा, और न करना चाहता। लिपिक संवर्ग एक भावुक संवर्ग है जिसे हर विभाग की रीढ़ की हड्डी कहा जाता है। समय के साथ लिपिक ने अपना सम्मान खोया है जिसे वह वापस पाना चाहता है। इस लेख के माध्यम से मध्यप्रदेश का प्रत्येक लिपिक गुज़ारिश करता है कि उसे अब भ्रम में न रखा जाए और उसे उसका अधिकार दे दिया जाए। लिपिक एकता में ही सम्मान और शक्ति निहित है।
हर विभाग की कमेटी होतीं है तो लेखपाल की कमेटी क्यूँ नही है
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