दोस्तों, क्या आप जानते हैं कि पूँजीवाद, साम्यवाद और समाजवाद में क्या अन्तर है? आए दिन आप सुनते होंगे कि अमेरिका पूँजीवादी अर्थव्यवस्था है जबकि चीन-रूस आदि में साम्यवाद, तो वहीं भारत देश समाजवादी देश है। भारत में भी 42वें संविधान संशोधन 1976 के द्वारा संविधान के प्रस्तावना में समाजवाद शब्द जोड़ा गया, साथ ही भारत के नीति-निदेशक तत्वों को देखें तो आप समझ पाएंगे कि भारत का संविधान भारत को एक समाजवादी देश बनने की ओर इंगित करता है। साथ ही हम बात करेंगे कि समाजवाद शब्द की आड़ में किस प्रकार वोट बैंक की राजनीति ने भारत देश की हालात को बिगाड़ा है।
पूँजीवाद - इस प्रकार की अर्थव्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति/कम्पनी को अधिक धन खुले बाज़ार से कमाने की छूट होती है। साथ ही साथ उस उपक्रम द्वारा कमाये गये प्रत्येक वस्तु/धन पर एकाधिकार उस व्यक्ति/कम्पनी का ही होता है। इस प्रकार समाज में एक फासला तो बना रहता है परन्तु किसी के भी मेहनत का हिस्सा काटकर अन्य संवर्ग को ऊपर उठाने का प्रयास इसमें नहीं होता है। इसमें व्यक्ति द्वारा आगे बढ़ने और मेहनत करने की ललक रहती है क्योंकि उसे उसकी मेहनत का ईनाम प्राप्त होता है। इस सिलसिले में अक्सर मालिक वर्ग पूँजीवादी अमीर जबकि मजदूर वर्ग शोषित होता है। औद्योगिक क्रांति के जन्म के साथ ही पूँजीवाद चरम पर आ गया और मज़दूर वर्ग को अन्य विकल्प जैसे साम्यवाद सोचने पर मज़बूर कर दिया।
साम्यवाद - साम्यवाद एक ऐसी विचारधारा का नाम है जिसमें न किसी राज्य की कोई सीमा हो और उसमें रहने वाले लोग किसी सम्पत्ति के मालिक न हों, बल्कि वह सम्पत्ति सबकी हो। कार्य सभी करें और यदि उपभोग की बात हो तो चाहे वह गरीब हो या अमीर, किसी भी जाति वर्ग का हो, उसे ऊपर उठकर एकरूपता को अपनाना होगा। साम्यवाद में कोई शासक वर्ग नहीं होता, बल्कि नियंत्रक के तौर पर एक राज्य होता है, उस राज्य में नेतृत्वकर्ता साम्यवादी विचारधारा का होना ज़रूरी है, परन्तु वास्तविकता में यह छद्म साम्यवाद को दर्शित करता है, क्योंकि छोटे स्तर पर तो साम्यवाद दिखता है, परन्तु बड़े वर्ग, अथवा किसी बड़े देश विशेष की बात करें तो साम्यवाद भी एक प्रकार का छद्म पूंजीवाद की तरह दिखता है जिसमें एक वर्ग समाज के अन्य बड़े वर्ग को साम्यवाद के नाम पर ठग रहा होता है, अथवा उसके अधिकारों का हनन कर रहा होता है। रूस के स्टेलिन ने भी साम्यवाद के नाम पर ही पूँजीवाद से बदतर हालात को जन्म दिया जिसमें हज़ारों की तादात में भुखमरी के कारण आमजन की मृत्यु तक हो गई थी। साम्यवाद के इतिहास को यदि ज़मीनी स्तर पर देखा जाए तो माओ-जेदांग जैसे नेताओं ने हिंसा को साम्यवाद लागू कराने का सबसे अच्छा तरीका अपनाया था। द्वितीय विश्वयुद्ध में पूँजीवाद और साम्यवाद के मध्य असल में युद्ध हुआ था जिसमें वैचारिक भिन्नता रखने वाले लोगों ने अपनी जाने खो दी।
समाजवाद - समाजवाद एक ऐसी व्यवस्था है जो पूँजीवाद और साम्यवाद का संक्रमण बिन्दु है। समाजवाद में पूँजीवाद का विरोध नहीं किया जाता परन्तु ऊपर से ही पैसा/धन आदि लेकर निम्न संवर्ग को उसका लाभ दिया जाता है। समाजवाद और कल्याणकारी योजनाओं में अन्तर बहुत बारीक है, क्योंकि समाजवाद में समुदाय के उन संवर्गों को बिना मेहनत या योगदान लाभ दिया जाता है जो असल में उसे हासिल नहीं कर सकते अथवा उसे हासिल न कर पाएंगे ऐसा दिखावा कर सकते हैं। भारत देश एवं विभिन्न राज्यों में सरकार द्वारा चलायी जा रही कल्याणकारी योजनाओं में तथा समाजवाद के नाम पर वोट बैंक के लिए बॉंटी जा रही मुफ्त की चीजों के बीच अन्तर कर पाना बड़ा मुश्किल है। समाजवाद किसी भी देश में रह रहे लोगों के लिए कल्याणकारी होता है क्योंकि जो तबका असहायता भरी जिन्दगी जी रहा होता है, उसे ऊपर स्तर के लोगों से धन (टैक्स आदि के रूप में) प्राप्त करके निम्न तबके में बॉंट दिया जाता है।
दूसरी तरफ, समाजवाद राष्ट्र के पतन को भी जन्म दे सकता है, क्योंकि मुफ्त की चीजें पाने वाले संवर्ग मेहनत न करना चाहेंगे, और मेहनती संवर्ग को उनके मेहनत का फल न मिल पाने के कारण कम मेहनत करना शुरू कर देंगे। भारत में समाजवाद का दंश सबसे अधिक निम्न-मध्यमवर्गीय परिवार झेल रहा है। समाजवाद एक ऐसी व्यवस्था है जो निम्न वर्ग को मेहनत नहीं करने देती है और न ही निम्न-मध्यमवर्गीय परिवार को आगे बढ़ने देती है। कल्याणकारी योजनाओं के नाम पर वोट बैंक की राजनीति चरम पर है जिसका परिणाम देश की जनता महंगाई, बेरोजगारी, अपराध के बढ़ते आंकड़ो आदि के माध्यम द्वारा देखी जा सकती है। समाजवाद के नाम पर चल रही योजनाओं का क्रियान्वयन कराने वाले राजनेता/ब्यूरोक्रेट्स आदि भ्रष्टाचार में लिप्त दिखते हैं और आए दिन आमजनता के भावनाओं के साथ खिलवाड़ होता जाता है।
समाजवाद एक प्रकार का साम्यवाद ही है, समाजवाद में सरकार लोकतांत्रिक तो होती है, परन्तु समाजवाद के नाम पर वोट बैंक की राजनीति साम्यवाद की तरह ही होती है जिसमें जनता के मेहनत के टैक्स का रूपये भ्रष्टाचार आदि में बर्बाद कर दिया जाता है। समाजवाद के नाम पर देश की जनता को दिया जा रहा धोखा इस बात की ओर भी इशारा करता है कि किस प्रकार सरकारी विद्यालयों का पतन होता जा रहा है अथवा सरकारी विद्यालयों में शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा है, यहां तक कि सरकारी विभागों में कार्यरत अधिकारी/कर्मचारी स्वयं अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़वाना पसंद नहीं करते। दूसरी तरफ सरकारी अस्पताओं की हालात की जर्जर है, सुविधा की कमी है। मध्यम एवं उच्च संवर्ग प्रायवेट शिक्षा एवं स्वास्थ ग्रहण करना चाहेंगे, परन्तु निम्न एवं मध्यमवर्ग को इसी समाजवाद के नाम पर धोखा दिया जाता रहा है।
व्यवस्था चाहे कोई भी रहे, पूँजीवाद, साम्यवाद अथवा समाजवाद; यह व्यक्ति और समाज की नैतिक जिम्मेदारी है कि नैतिक मूल्यों की शिक्षा नई पीढी को दी जाए, साथ ही साथ भ्रष्टाचार का खात्मा होना भी देश की तरक्की के लिए सहायक होगा। मुफ्त में यदि कोई वस्तु मिले तो सिर्फ शिक्षा और स्वास्थ्य, क्योंकि मुफ्त में मिलने वाली चाजें भी किसी से छीनकर ही बॉंटी जाती हैं। इस प्रकार हमारे देश में आज़ादी के बाद से ही ग़रीबी हटाओ का नारा देने वाले राजनेता ग़रीबी हटाने के नाम पर समाजवाद के आड़ तले देश को अवनति के रास्ते ले जाते रहे हैं।
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